हरेला पर्व: प्रकृति और संस्कृति का अनमोल संगम

हरेला, उत्तराखंड का एक प्रमुख लोक पर्व है, जो प्रकृति के प्रति श्रद्धा, समृद्धि और सामाजिक एकता का प्रतीक है। यह पर्व मुख्य रूप से कुमाऊँ क्षेत्र में श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) के प्रथम दिन या संक्रांति के दिन मनाया जाता है। हरेला न केवल कृषि और पर्यावरण से जुड़ा है, बल्कि यह उत्तराखंड की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत को भी दर्शाता है।

हरेला पर्व का महत्व

हरेला शब्द ‘हरियाली’ से लिया गया है, जो हरे-भरे पर्यावरण और प्रकृति की समृद्धि का प्रतीक है। यह पर्व वर्षा ऋतु की शुरुआत और फसलों की बुआई के समय को चिह्नित करता है। इस अवसर पर लोग प्रकृति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और अच्छी फसल व समृद्धि की कामना करते हैं। हरेला सामाजिक एकता और पारिवारिक बंधनों को मजबूत करने का भी अवसर प्रदान करता है।

हरेला पर्व की परंपराएँ

हरेला पर्व की तैयारियाँ लगभग दस दिन पहले शुरू हो जाती हैं। इस दौरान लोग अपने घरों में सात प्रकार के अनाज (जैसे गेहूँ, जौ, मक्का, उड़द, मूँग, कोदा, और गहत) को मिट्टी के पात्र में बोते हैं। इन अनाजों को ‘हरेला’ कहा जाता है। इन्हें नियमित रूप से पानी देकर पोषित किया जाता है और पर्व के दिन इन हरे-भरे अंकुरों को काटकर पूजा में उपयोग किया जाता है।

  • पूजा और अनुष्ठान: हरेला के दिन लोग सुबह जल्दी उठकर स्नान करते हैं और घर में पूजा-अर्चना करते हैं। हरेले के अंकुरों को देवी-देवताओं को अर्पित किया जाता है और फिर इन्हें परिवार के सदस्यों के सिर पर रखकर आशीर्वाद लिया जाता है।
  • पर्यावरण संरक्षण: यह पर्व पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। हरेला के दौरान लोग पेड़-पौधे लगाते हैं, जिससे प्रकृति के प्रति उनकी जिम्मेदारी का बोध होता है।
  • सामाजिक मेल-मिलाप: इस दिन परिवार और रिश्तेदार एक साथ इकट्ठा होते हैं, जिससे आपसी प्रेम और भाईचारा बढ़ता है। एक दूसरे के सर पर हरेला रखते है और बड़े आशीष वचन देते हैं।

“लाग हरयाव, लाग दशे, लाग बगवाव।

जी रये जागी रया, यो दिन यो बार भेंटने रया।

दुब जस फैल जाए, बेरी जस फली जाया।

हिमाल में ह्युं छन तक, गंगा ज्यूं में पाणी छन तक,

यो दिन और यो मास भेंटने रया।

अगाश जस उच्च है जे, धरती जस चकोव है जे।

स्याव जसि बुद्धि है जो,स्यू जस तराण है जो।

जी राये जागी रया। यो दिन यो बार भेंटने रया।”

हरेला और उत्तराखंड की संस्कृति

हरेला पर्व उत्तराखंड की लोक संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह पर्व स्थानीय लोक गीतों, नृत्यों और परंपराओं के माध्यम से जीवंत हो उठता है। गढ़वाली और कुमाऊँनी लोक गीतों में हरेला की महिमा का बखान किया जाता है। यह पर्व ग्रामीण जीवन की सादगी और प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव को दर्शाता है।

आधुनिक समय में हरेला

आज के दौर में, जब पर्यावरण संकट एक वैश्विक चुनौती बन चुका है, हरेला पर्व का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाने और टिकाऊ जीवनशैली अपनाने की प्रेरणा देता है। उत्तराखंड सरकार भी इस पर्व को बढ़ावा देने के लिए वृक्षारोपण और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कार्यक्रम आयोजित करती है।

हरेला पर्व केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि प्रकृति, संस्कृति और समुदाय का एक सुंदर मेल है। यह हमें यह सिखाता है कि हमारी समृद्धि और खुशहाली प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते पर निर्भर करती है। हरेला हमें अपने पर्यावरण की रक्षा करने और सामाजिक एकता को बढ़ावा देने की प्रेरणा देता है। आइए, इस हरेला पर्व पर हम सभी प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाएँ और हरियाली का संदेश फैलाएँ।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top